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तो ये महत्व है उत्तराखंड की ब्राह्मण जातियों का

जब से विश्व में हिन्दू धर्म का निर्माण हुआ है उसी समय से उसके साथ ही धर्म-रक्षकों,धर्म-प्रचारको का भी जन्म हुआ है।जो समय-समय पर धर्म से जुड़े अनेक संसाधनों का सभी लोगो तक प्रसारित करती है।
अगर हम हिन्दू धर्म संस्कृति को देखे तो मनुष्य के जन्म से और मौत के बाद तक भी मतलब श्राद्ध व पिण्ड-दान और पितृ-दान तक का भी उल्लेख मिलता है।
इन सभी प्रकार के संस्कारो को निभाने  लिए हिन्दू-धर्म में पंडितों(ब्राम्हणों) पर आश्रित रहा जाता है।
आज हम उत्तराखंड के कुछ मुख्य ब्राह्मण जातियों के इतिहास पर प्रकाश डालेंगे जिनकी धनक ना सिर्फ भारत में अपितु सम्पूर्ण विश्व में हैं।
मूल रूप से गढ़वाल में ब्राह्मण जातियां तीन हिस्सो में बांटी गई है :-
1 सरोला
2 गंगाड़ी
3 नाना
सरला और गंगाड़ी 8 वीं और 9वीं शताब्दी के दौरान मैदानी भाग से उत्तराखंड आए थे। पवार शासक के राजपुरोहित के रूप में सरोला आये थे।

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गढ़वाल में आने के बाद सरोला और गंगाड़ी लोगो ने नाना गौत्र के ब्राह्मणों से शादी की।
सरोला ब्राह्मण के द्वारा बनाया गया भोजन सब लोग खा लेते है परंतु गंगाड़ी जाती का अधिकार केवल अपने सगे-सम्बन्धियो तक ही सिमित है। 
1. नौटियाल -
700 साल पहले टिहरी से आकर तली चांदपुर में नौटी गाँव में आकर बस गए !  
आप के आदि पुरष है नीलकंठ और देविदया, जो गौर ब्राहमण है।।
नौटियाल चांदपुर गढ़ी के राजा कनकपाल के साथ सम्वत 945 मै धर मालवा से आकर यहाँ बसी, इनके बसने के स्थान का नाम गोदी था जो बाद मैं नौटी नाम मैं परिवर्तित हो गया और यही से ये जाती नौटियाल नाम से प्रसिद हुई।
2. डोभाल -
गढ़वाली ब्राह्मणों की प्रमुख शाखा गंगाडी ब्राह्मणों मैं डोभाल जाती सम्वत 945 मै संतोली कर्नाटक से आई मूलतः कान्यकुब्ज ब्रह्मण जाती थी। 
मूल पुरुष कर्णजीत डोभा गाँव मैं बसने से डोभाल कहलाये। 
गढ़वाल के पुराने राजपरिवार मैं भी इस जाती के लोग बड़े पदों पर भी रहे है।
ये चोथोकी जातीय सरोलाओ की बराथोकी जातियों के सम्कक्ष थी जो नवी दसवी सदी के आसपास आई और चोथोकी कहलाई।
3.  रतूड़ी -
सरोला जाती की प्रमुख जाती रतूडी मूलत अद्यागौड़ ब्रह्मण है,
जो गौड़ देश से सम्वत 980 मैं आये थे।
इनके मुल्पुरुष सत्यानन्द,राजबल सीला पट्टी के चांदपुर के समीप रतूडा गाँव मैं बसे थे और यही से ये रतूडी नाम से प्रसिद हुए।
इस जाती के लोगो का भी गढ़वाल नरेशों पर दबदबा लम्बे समय तक बरकरार रहा था।
गढ़वाल का सर्व प्रथम प्रमाणिक इतिहास लिखने का श्रेय इसी जाती के युग पुरुष टिहरी राजदरबार के वजीर पंडित हरीकृषण रतूडी को जाता है।
4. गैरोला -
इनका पैत्रिक गाव चांदपुर तैल पट्टी है।इनके आदि पुरष है गयानन्द और विजयनन्द।।
5.  डिमरी -
आप दक्षिण से आकर पट्टी तली चांदपुर दिमार गाव में आकर बस गए !
ये द्रविड़ ब्राह्मन है।।
6.  थपलियाल -
ये 1100  साल पहीले पट्टी सीली चांदपुर के ग्राम थापली में आकर बस गए।
इनके आदी पुरुष जैचानद माईचंद और जैपाल, जो गौर ब्राहमण है।।
गढ़वाली ब्राह्मणों की बेहद खास जाती जिनकी आराध्य माँ ज्वाल्पा है।
इस जाती के विद्वानों की धाक चांदपुर गढ़ी, देवलगढ़ ,श्रीनगर,और टिहरी राजदरबार मैं बराबर बनी रहती थी।
थपलियाल अद्यागौड़ है जो गौड देश से सम्वत 980 में थापली गाँव में बसे और इसी नाम से उनकी जाती संज्ञा थपलियाल हुई।
ये जाती भी गढ़वाल के मूल बराथोकी सरोलाओ मैं से एक है।
नागपुर मैं थाला थपलियाल जाती का प्रसिद गाँव है,
जहा के विद्वान आयुर्वेद के बडे सिद्ध ब्राह्मण थे।
7. बिजल्वाण -
इनके आदि पुरूष है बीजो / बिज्जू। इन्ही के नाम पर ही इनकी जाती संज्ञा बिज्ल्वान हुई।
गढ़वाल की सरोला जाती मैं बिज्ल्वान एक प्रमुख जाती सज्ञा है, इनकी पूर्व जाती गौड़ थी जी 1100 के आसपास गढ़वाल के चांदपुर परगने मैं आई थी,और इस जाती का मूल स्थान वीरभूमि बंगाल मैं है।।
8. लखेड़ा -
लगभग 1000 साल पहले कोलकत्ता के वीरभूमि से आकर उत्तराखंड में बसे।
उत्तराखंड के लगभग 70 गांवों में फैले लखेड़ा लोग एक ही पुरूष श्रद्धेय भानुवीर नारद जी की संतानें हैं।
ये सरोला ब्राह्मण है।।
9. बहुगुणा -
गढ़वाली ब्राह्मणों की प्रमुख शाखा गंगाडी ब्राह्मणों में बहुगुणा जाती सम्वत 980 में गौड़ बंगाल से आई मूलतः अद्यागौड़ जाती थी।
10. कोठियाल -
सरोला जाती की यह एक प्रमुख शाखा है,जो चांदपुर मैं कोटी गाँव मैं आकर बसी थी और यहाँ बसने से ही कोठियाल जाती नाम से प्रसिद हुई।
इनकी मूल जाती गौड़ है।
चांदपुर गढ़ी के राजपरिवार द्वारा बाद मैं कोटी को सरोला मान्यता प्रदान की गयी थी।
इस जाती के अधिकार क्षेत्र मैं बद्रीनाथ मंदिर की पूजा व्यवस्था मैं हक़ हकूक भी शामिल है।
11. उनियाल -
839 इ. पू. जयानंद और विजयानंद नाम के दो चचेरे भाई (ओझा और झा) दरभंगा (मगध-बिहार) से  श्रीनगर,गढ़वाल में आये। वो मैथली ब्राह्मण थे।
प्रसिद्ध कवि विद्यापति और राजनीतिज्ञ / अर्थशास्त्री चाणक्य (कौटिल्य) उनके पूर्वजों में से एक थे।
उन्हें "ओनी" में जागिर दी गई थी, इसलिए ओझा और झा (दो अलग गोत्र - कश्यप और भारद्वाज) को एक जाति ओनियाल में बनी, जो बाद में उनियाल बन गई।
माता भगवती सभी यूनियाल,ओजा,झा और द्रविड़ ब्राह्मणों के कुलदेवी हैं।
12. पैनुली पैन्यूली -
पैनुली / पैन्यूली मूलतः गौड़ ब्रह्मण है।
दक्षिन भारत से 1207 में मूल पुरुष ब्र्ह्मनाथ द्वारा पन्याला गाँव रमोली मैं बसने से इस जाती का नाम पैनुली / पैन्यूली प्रसिद हुआ।
इस जाती के कई लोग श्रीनगर राज-दरबार और टिहरी मैं उच्च पदों पर आसीन हुए।
इस जाती के श्री परिपुरणा नन्द पैन्यूली 1971-1976 मैं टिहरी गढ़वाल के संसद भी रहे है।
13. ढौंडियाल -
गढ़वाल नरेश राजा महिपती शाह द्वारा 14 और 15 वी सदी मैं चोथोकी वर्ग मैं वृद्धि करते हुए 32 अन्य जातियों को इस वर्ग मैं सामिल किया था जिनमे ढौंडियाल प्रमुख जाती थी।
इस जाती के मूल पुरुष गौड़ जाती के ब्राहमण थे जो राजपुताना से गढ़वाल सम्वत 1713 मैं गढ़वाल आये थे। 
मूल पुरुष पंडित रूपचंद द्वारा ढोण्ड गाँव बसाया गया था,
जिस कारण इन्हें ढौंडियाल कहा गया।
14. नौडियाल -
मूलतः गढ़वाली गंगाडी ब्रह्मण जिनकी पूर्व जाती संज्ञा गौड़ थी।
मूल स्थान भृंग चिरंग से सम्वत 1543 में आये पंडित शशिधर द्वारा नोडी गाँव बसाया गया था।
नोडी गाँव के नाम पर ही इस जाती को नौडियाल कहा गया।
15. पोखरियाल -
मूलतः गौड़ ब्रह्मण है इनकी पूर्व जाती सज्ञा विल्हित थी जो संवत 1678 में विलहित से आने के कारण हुई।
इस जाती के मूल पुरुष जो पहले विलहित और बाद मैं पोखरी गाँव जिला पौडी गढ़वाल मे बसने से पोखरियाल प्रसिद्ध हुए।
इस जाती नाम की कुछ ब्रह्मण जातीय हिन्दू राष्ट्र नेपाल मैं भी है,
जो प्रसिद शिव मंदिर पशुपति नाथ मैं पूजाधिकारी भी है।
ये जाती गढ़वाल मैं पौडी के अतिरिक्त चमोली मैं भी बसी हुई है ,
टिहरी मैं इसी जाती नाम से राजपूत जाती भी है,
जो सम्भवतः किसी पुराने गढ़ के कारण पड़ी हुई हो।
16. सकलानी -
गढ़वाल नरेशों द्वारा मुआफी के हक़दार भारद्वाज कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की यह शाखा सम्वत 1700 के आसपास अवध से सकलाना गाँव मैं बसी।
इनके मूल पुरुष नाग देव ने सकलाना गाँव बसाया था,
बाद मैं इस जाती के नाम पर इस पट्टी का नाम सकलाना पड़ा।
राज पुरोहितो की यह जाती अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारन राजा द्वारा विशेष सुविधाओ से आरक्षित किये गये थे और जागीरदारी भी प्रदान की गयी।
17. चमोली -
मूल रूप से द्रविड़ ब्राह्मण है जो रामनाथ विल्हित से 924 में आकर गढ़वाल के चांदपुर के चमोली गाँव में बसे।
सरोलाओ की एक प्रमुख जाती जो मूल रूप से चमोली गाँव में बसने से अस्तित्व में आई थी जिसे पंडित धरनी धर,हरमी,विरमी ने बसाया था और गाँव के नाम पर ही ये जाती चमोली कहलाई।
ये जाती सरोलाओ के बारह थोकि में से एक प्रमुख है जो नंदा देवी राजजात में प्रमुख भूमिका निभाती है।
18. काला
गढ़वाल की यह वह प्रसिद जाती है जिसने आजादी के बाद सबसे बेहतर  प्रागति की है।
इस जाती मैं अभी तक सबसे अधिक प्रथम श्रेणी के अधिकार मौजूद है।
सुमाडी इस जाती का सबसे अधिक प्रसिद गाँव है.
जहा के "पन्थ्या दादा" एक महान इतिहास पुरुष हुए है।
19. पांथरी -
मूलतः सारस्वत ब्राहमण जो सम्वत 1543 में जालन्धर से आकर गढ़वाल मैं पंथर गाँव मैं बसे और पांथरी जाती नाम से प्रसिद्ध हुए।
इस जाती के मूल पुरुष अन्थु पन्थराम ने ही पंथर गाँव बसाया था।
20. खंडूरी / खंडूड़ी -
सरोलाओ की बारह थोकी जातियों मैं से एक खंडूरी मूलतः गौड़ ब्रह्मण है,
जिनका आगमन सम्वत 945 में वीरभूमि बंगाल से हुआ।
इनके मूल पुरुष सारन्धर एवं महेश्वर खंडूड़ी गाँव मैं बसे और खंडूड़ी जाती नाम से प्रसिद हुए।
इस जाती के अनेक वंसज गढ़वाल राज्य मैं दीवान एवं कानूनगो के पदों पर भी रहे।
बाद में राजा द्वारा इन्हें थोक-दारी दे कर गढ़वाल के विभिन्न गाँव को जागीर मैं दे दिया था।
21. सती -
गढ़वाल की सरोला जाती मैं से एक सती गुजरात से आई ब्रह्मण जाती है,जो चांदपुर गढी के शासको के निमंत्रण पर चांदपुर और कपीरी पट्टी मैं बसी थी। 
इस जाती की एक सखा नौनी/नवानी भी है।
इस जाती नाम के ब्राहमण गढ़वाल के कई कोनो मैं फैले है,
यहाँ तक की इस जाती के कुछ ब्राहमण कुमाऊँ मे भी है

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22. कंडवाल -
मूलतः सरोला जाती है जो कांडा गाँव मैं बसने से कंडवाल कहलाई है।
गढ़वाल के इतिहास मैं क्रमांक 19 से 26 तक की कुल आठ जातीय सरोला सूचि मैं सामिल की गयी है जिनमे कंडवाल जाती भी है।
कंडवाल जाती मूलतः कुमयुनी जाती है।जो कांडई नामक गाँव से यहाँ चांदपुर मैं सबसे पहले आकर बसी थी,जिनके मुल्पुरुष का नाम आग्मानंद था।
नागपुर की एक प्रसिद जाती कांडपाल भी इससे अपना सम्बन्ध बताती है।जिनके अनुसार( कांडपाल) का मूल गाँव कांडई आज भी अल्मोडा मैं है जहा के ये मूलतः कान्यकुब्ज (भारद्वाज गोत्री) कांडपाल वंसज है।
यही कुमाऊ से सन 1343 में श्रीकंठ नाम के विद्वान से निगमानंद और आगमानद ने कांडपाल वंश को यहाँ बसाया था,
जिनमे से एक भाई चांदपुर में बस गया और राजा द्वारा इन्हें ही सरोला मान्यता प्रदान कर दी गयी और चांदपुर में ये लोग कंडवाल नाम से प्रसिद हुए।
इसी जाती के दुसरे स्कन्ध में से निगमानद ने 1400 में कांडई गाँव बसाया था,कांडई में बसने से इन्हें कंडयाल भी कहा गया,
जो बाद मैं अपने मूल जाती नाम कांडपाल से प्रसिद्ध हुयी।
23. ममगाईं -
मूलतः गौड़ ब्रह्मण है जो उज्जैन से आकर मामा के गाँव मैं बसने से ममगाईं कहलाये थे। ये जाती मूलतः पौडी जिले की है लेकिन टिहरी और उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग जिले मैं भी इस जाती के गाँव बसे है।
महाराष्ट्र मूल के होने से वाह भी इस जाती के कुछ लोग रहते है।
नागपुर मैं भी इस जाती के कुछ परिवार बसे है,
जिनके रिश्ते नाते टिहरी और श्रीनगर के ब्राह्मणों से होते है।
24. भट्ट -
भट्ट सामन्यता एक विशेष जाती संज्ञा है जिसका आश्य प्रसिद्धि और विद्वता से है।
सामान्यतः ये एक प्रकार की उपाधि थी जो राजाओ द्वारा प्रदत होती थी,गढ़वाल की अन्य जाती सन्ज्ञाओ के अनुरूप ये उपाधि भी बाद में जातिनाम में बदल गयी,
कुछ लोग इनका मूल भट्ट ही मानते है।
गढ़वाल मैं भट्ट जाती सबसे अधिक प्रसार वाली जाती संज्ञा है।
ये सभी स्वयं को दक्षिन वंशी मानते है।
कालांतर में इनमे से अनेक ने आपने नए जाती नाम भी रखे है, भट्ट ही एक मात्र जाती है जो गढ़वाल में सरोला सूचि,गागाड़ी सूचि और नागपुरी सूची में शामिल की गयी है।
25. पन्त -
भारद्वाज गोत्रीय ब्राहमण है,जिनके मूल पुरुष जयदेव पन्त का कोकण महाराष्ट्र से 10 वी सदी में चंद राजाओ के साथ कुमाऊँ में आगमन हुआ।
इनके वंसज शर्मा श्रीनाथ नाथू एवं भावदास के नाम भी चार थोको मैं विभाजित हुए,
ये ही बाद में मूल कुमाउनी ब्राह्मण जाती पन्त हुई।
बाद मैं अल्मोडा,उप्रडा,कुंलता,बरसायत, बड़ाउ,म्लेरा में बसे शर्मा पन्त, श्रीनाथ पन्त, परासरी पन्त, और हटवाल पन्त,प्रमुख फाट बने।
ये सभी कुमाउनी पन्त थे,
बाद में इसी जाती के कुछ परिवार गढ़वाल के विभिन्न इलाको में बसे,विद्वान और ज्योतिष के क्षेत्र मैं उलेखनीय कार्यो ने यहाँ भी इन्हें उच्च स्तर तक पहुचा दिया।
    पन्त जाती का नागपुर में प्रसिद गाँव कुणजेटी है।ये नागपुर के 24 मठ मंदिरों मैं आचार्य वरण के अधिकारी है।
26. बर्थवाल/बड़थ्वाल -
मूलतः सारस्वत ब्राहमण है,जो संवत 1543 में गुजरात से आकर गढ़वाल में बसे।
इस जाती के मूल पुरुष पंडित सूर्य कमल मुरारी, बेड्थ नामक गाँव में बसे और बाद मैं जिनके वंसज बर्थवाल/बड़थ्वाल जाती नाम से प्रसिद हुए।
27. कुकरेती -
मूलतः द्रविड़ ब्रह्मण है,जो विल्हित नामक स्थान से आकर सम्वत 1352 में गढ़वाल मैं आये थे।
इनके  मूल-पुरूष गुरुपती कुकरकाटा गाँव मैं बसे थे,
यही से कुकरेती नाम से प्रसिद्ध हुए।

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28. अन्थ्वाल -
मूलतः सारस्वत ब्रह्मण.संवत 1555 में पंजाब से गढ़वाल में आगमन हुआ।
मूल पुरुष पंडित रामदेव अणेथ गाँव पौडी जिले मैं बसे,
यही से इनकी जाती संज्ञा अन्थ्वाल/ अणथ्वाल हुई।
इसी जाती के भै-बंध वर्तमान में श्री ज्वाल्पा धाम में भी ब्रह्मण है।
नागपुर में ऋषि जमदग्नि के प्रसिद गाँव जामु में भी अन्थ्वाल/ अणथ्वाल जाती के लोग रहते है।
अन्थ्वाल/अणथ्वाल जाती मूलतः गंधार अफगानिस्तान से आई ब्राह्मणों की पुराणी जाती है।
इसी दौर में इरान अफगानिस्तान से आई अनेक ब्रह्मण जातियों मैं मग जाती के ब्रह्मण के साथ ये भी थे।
अन्थ्वाल/अणथ्वाल नाम की एक जाती लाहौर वर्तमान पाकिस्तान में भी रहती है,
जो वहा के हिन्दू मंदिरों की पूजा सम्पन्न भी कराते है।
29. बेंजवाल -
बेंजी गाँव अगस्त्यमुनि से मन्दाकिनी के वाम परश्वा पर लगभग 3 किलोमीटर की खड़ी चढाई के बाद यह गाँव आता है।
बेंजी विजयजित का अपभ्रंस है जिसका आश्य विजय से था।
बीजमठ महाराष्ट्र से आये मूलतः कान्यकुब्ज ब्राह्मणों का यहाँ गाँव 11 वी सदी के आस पास बसा था,जिनके मूल पुरुष का नाम पंडित देवसपति था,जो की मुनि अगस्त्य के पुराने आश्रम पुरानादेवल के पास बामनकोटि मैं बसे थे।
यही से भगवान अगस्त्य की समस्त पूजा अधिकार इस जाती के पास सम्मिलित हुए। जिसके प्रमाण में इस जाती के पास भगवान अगस्त्य से जुडा प्राचीन अगस्त्य कवच मजूद है।
बामनकोटि से से पंडित देवसपति के वंसज किर्तदेव और बामदेव ने बेंजी गाँव को बसाया था।
बेंजी के नाम पर इन्हें बिजाल/बेंजवाल कहा गया।
प्रसिद्ध इतिहासकार एटकिन्सन ने हिमालयन गजेटियर मैं इस जाती वर्णन किया है।
बेंजी गाँव के नाम पर ही इनकी जाती संज्ञा बेंजवाल हुई,ये ब्राहमण वंसज अगस्त्य ऋषि के साथ आये 64 गोत्रीय ब्राह्मणों मैं से एक थे।
साथ ही भगवान अगस्त्य से जुड़े 24 प्रमुख मंदिरों मैं ये पूरब चरण के अधिकारी है ब्रह्मण भी है।
30. पुरोहित -
पुरोहितो का आगमन 1663 में जम्मू कश्मीर से हुआ था।ये जम्मू कश्मीर राज-परिवार के कुल पुरोहित थे।
राजा के यहाँ पोरिह्त्य कार्य करने से पुरोहित नाम से प्रसिद हुए।
इनके पहले गाँव दसोली कोठा बधाण बसे, जहा से बाद में 1750 में ये नागपुर पट्टी में भी बसे।
31. नैथानी -
मूलरूप से कान्यकुब्ज ब्राह्मण है जो की सम्वत 1200 कन्नौज से गढ़वाल में आये।
आपके मूलपुरुष कर्णदेव, इंद्रपाल नैथाना गाँव, गढ़वाल में आकर बसे।
श्री भुवनेश्वरी सिद्धपीठ (मन्दिर) का प्रबन्ध एवं व्यवस्था नैथानी जाति के लोग देखते हैं।

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